कावेरी जल विवाद ने यह साबित कर दिया कि कैसे पानी से भी आग लग सकती है।
पहले यह मामला चार राज्यों के बीच का अन्तर्राज्यीय मामला हुआ करता था। लेकिन अब यह केन्द्र , राज्य और न्यायालय के बीच का त्रिकोणिय समीकरण बन चुका है।
सोमवार को केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से कहा कि वो अपने 30 सितम्बर के आदेश में संशोधन करे। सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में 4 अक्टूबर तक कावेरी मैनेजमेंट बोर्ड का गठन करने का आदेश दिया था और कर्नाटक सरकार को फटकार लगाते हुए यह कहा था कि कर्नाटक 1 से 6 अक्टूबर तक तमिलनाडु को 6000 क्यूसेक पानी दे।
लेकिन कावेरी मैनेजमेंट बोर्ड के गठन करने के फैसले को लेकर केन्द्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट अब आमने सामने खड़े हो गये हैंै। केन्द्र सरकार ने कोर्ट के मनैजमेन्ट बोेर्ड गठन के फैसले को गलत ठहराया है। सरकार का कहना है कि बोर्ड के गठित करने का अधिकार संसद का है ।
कावेरी नदी विवाद मामला आजादी से पहले का है। तब यह मामला चार राज्यों कर्नाटक , तमिलनाडु , केरल और पुदूचेरी के बीच था। लेकिन आजादी के बाद बेतरतीब बने जल बांधो की वजह से पानी रुका तो केरल और पुदूचेरी लगभग इस विवाद से बाहर हो गये।
1976 में पहली बार अधिकारिक तौर पर भारत सरकार ने बढते विवाद को देखते हुए एक कमेटी का गठन किया । कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर चारो दावेदारों के बीच एक समझौता हुआ। 1986 में ऐसी ही एक कोशिश और की गयी।
लगातार पानी के घटते जल स्तर के कारण यह विवाद लगातार बढ़ता ही रहा । 1991 में केन्द्र ने न्यायाधिकरण का एक अंतरिम आदेश पारित किया और कहा कि कर्नाटक कावेरी नदी का जल का एक तय हिस्सा तमिलनाडु के लिए छोडेगा। लेकिन हर बार जब दोनो राज्य एक साथ सूखे को झेल रहे होतें हैं तो जल की मांग दोनो क्षेत्रों मे बढ़ जाती है और कभी कभी यह विवााद हिंसक रूप ले लेता है। जैसा कि हाल ही के दिनो में देखने में आया है।
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